गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर
संस्था के चार स्तम्भ
गुरुकुल महाविद्यालय की स्थापना के एक वर्ष बाद स्वामी दर्षनानन्द गुरुकुल से चले गये। उनके जाने के बाद बाबू सीताराम जी गुरुकुल को आगे चलाने के लिए आचार्य पं0 गंगादत्त जी षास्त्री (स्वामी षुद्धबोध तीर्थ) पं0 भीमसेन षर्मा, पं0 नरदेव षास्त्री वेदतीर्थ (राव जी) और पं0 पद्मसिंह षर्मा को लेकर आए। गुरुकुलके स्थायित्व के लिए इन चारों ने बड़ी भूमिका निभायी। ये ही चारों गुरुकुल महाविद्यालय के मुख्य चार स्तम्भ थे।
स्वामी भुद्धबोध तीर्थ
आचार्य जी का जन्म सन 1870 के लगभग बुलन्दषहर जिले के बैलोन (राजघाट-नरौरा) नामक स्थान पर हुआ था। इनका यह नाम संन्यास ग्रहण के बाद हुआ। इनका पूर्वनाम गंगादत्त षास्त्री था। इनकी माता का नाम दयावती तथा पिता का नाम हेमराज था। इनके पिता प्रसिद्ध चिकित्सक थे। आचार्य जी ने मथुरा में महर्षि दयानन्द सरस्वती के सहाध्याायी पं0 उदयप्रकाष जी से अष्टाध्यायी पढ़ी। काषी में आपने महाभष्य पर्यन्त व्याकरण और न्याय-वेदान्त का गहन अध्ययन किया। तदुपरान्त ये आर्यप्रतिनिधि सथा पंजाब के जालन्धर स्थित वैदिक आश्रम में पं0 कृपाराम (स्वामी दर्षनानन्द) और महात्मा मुंषीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) के आग्रह पर आ गए। और आजीवन किसी न किसी रूप में आर्य समाज में अध्ययनाध्यापन से जुड़े रहे। गुरुकुल कागड़ी के प्रथम अध्यापकाचार्य के रूप में आचार्यजी 1908 के प्रारम्भ तक रहे। मतभेद के कारण आपने गुरुकुल कांगड़ी से विदा ले ली और 31 मई 1908 को आप गुरूकुल महाविद्यालय के आचार्य बन गए। फिर आगामी 25 वर्षों तक आप निरन्तर यहाॅ रहे।
1915 में कुम्भ पर पं0 मदनमोहन मालवीय के महाविद्यालय आगमन के समय आपने जगन्नाथपुरी के षंकराचार्य के प्रधानषिष्य सुब्रह्मण्य देवतीर्थ से संन्यास लिया और स्वामी षुद्धबोध तीर्थ नाम धारण किया। महाविद्यालय में आपने मुख्य आचार्य व मुख्याधिष्ठाता के पद को अलंकृत किया। 16 सितम्बर 1933 को आपने भौतिक देह का त्याग कर दिया।
बाबू सीताराम जी
ज्वालापुर महाविद्यालयरूपी विराट वृक्ष के अंकुर को रोपने के लिए उर्वर भूमि देने का श्रेय श्री बाबू सीताराम जी को ही है। उन्होने भूमिदान करके दर्षनानन्द जी के स्वप्न को साकार करने में जो योगदान दिया, जब तक यह महाविद्यालय रहेगा, अविस्मरणीय बना रहेगा। एक परिचय
बाबू सीताराम जी का जन्म सन् 1856 ई0 के लगभग मुरादाबाद में कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम लाला जसवन्तराय था। इनकी पत्नी बड़ी ही धार्मिक स्वभाव की थीं तथा बाबू जी के प्रत्येक धार्मिक कार्य में सहायक रहती थीं। उन्हें पान खाने का बड़ा षौक था। उनके कोई सन्तान नहीं थी। अतएव उनकी इच्छा किसी विद्यालय को चलाने के निए अपनी सम्पत्ति देने की थी।
बाबू सीताराम जी अपने समय के प्रसिद्ध, होषियार एवं प्रभावषाली पुलिस सब इन्सपेक्टर (दरोगा) थे। उन्होंने ज्वालापुर थाने में किसी समय बहुत दिनों तक थानेदार के पद पर कार्य किया था। तभी ज्वालापुर में एक मकान बना लिया और यही रहने लगे। बाबू जी अपने कार्य में बड़े ही दक्ष थे। उनकी दक्षता का प्रमाण ‘तफतीष’ नामक एक पुस्तक जो पुलिस ट्रेनिंग में बहुत समय तक कोर्स मे रही तथा संयुक्त प्रान्त के तत्कालीन प्रसिद्ध इन्सपेक्टर ब्राभले साहब द्वारा प्रषंसित थी।
रहने के मकान के अलावा एक बाग और बंगला भी इनकी सम्पत्ति में सम्मिलित था, जो इन्होंने अंग्रेज रेलवे इंजीनियर से खरीदा था। बाग और बंगले की जगह बहुत विस्तृत न होते हुए भी दर्षनीय थीं। जिसमें आम, अमरूद, लौकाट, नासपाती, नींबू, नारंगी, अनार, षरीफा, विहीं आदि फलदार वृक्षों के साथ-साथ मन को अनायास आकर्षित करने वाले बेला, चमेली, जुही, मौलसरी, चम्पा, सोनजूही आदि की क्यारियाॅ एव पष्चिमी सभ्यता के निर्गन्ध पुष्पों का भी अभाव न था। बाबू सीताराम फल-पुष्पों के स्वयं बड़े षौकीन थे। वे प्रतिदिन घण्टों बाग में काम करते और अपना परिचय ‘बाग का माली’ कहकर दिया करते थे।
उधर सिकन्दराबाद और बदायूॅ में गुरुकुल खोलकर स्वामी दर्शनानन्द जी को दृष्टि हरिद्वार पर पड़ी। सन् 1907 ई0 के प्रारम्भ वे यहाॅ आये और हरिद्वार स्टेशन के सामने एक बाग में किराये कर जगह पर गुरुकुल बनाकर बैठे गये। उस समय वहाॅ विद्यार्थियों की संख्या चार-पांच से अधिक न थी। यह ज्वालापुर महाविद्यालयरूपी विराट् वृक्ष का अंकुर था। कई माह तक वे इस अंकुर को उसी बाग में पालते रहे और रोपने के लिए उचित स्थान की खोज में भी रहे।
इधर बाबू सीताराम जी बंगले और बाग को गुरुकुल के लिए दान का संकल्प कर चुके थे और किसी दानपात्र की खोज में थे। दैवयोग से बाबू सीताराम और स्वामी दर्शनानन्द दोनो मिल गए। और दोनो की आंकाक्षाएं पूर्ण हुई। स्वामी दर्शनानन्द अपनी पौध को लेकर बाबू सीतारामजी के बाग में आ गए।
पं0 भीमसेन शर्मा
पं0 भीमसेन जी शर्मा का जन्म सन् 1877 ई0 में जयपुर राज्य के भागवाना ग्राम में हुआ था। वहाॅ इनके पिता आगरा में आकर स्थायी रूप से रहने लगे थे। ये आठ वर्ष के थे तो इनके पिताजी का स्वर्गवास हो गया।जब 16 वर्ष के हुए तो विद्याध्ययन के लिए काशी पहुचे। उन दिनों काशी में पं0 कृपाराम जी ने एक पाठशाला खोल रखी थी जिसमें पं0 काशीनाथ जी पढ़ाते थे। आचार्य गंगादत्त जी भी उन दिनों उसी में पाठशाला अध्ययनाध्यापन करते थे। पं भीमसेन जी ने अष्टाध्यायी और सिद्धान्तकौमुदी का कुछ भाग पं काशीनाथ जी से पढ़ा। फिर काशी संस्कृत कालेज में महामीोपाध्याय श्री भगवताचार्य जी से पढ़ने लगे और वहीं से मध्यमा की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करके छात्रवृत्ति प्राप्त की। काशी में सात वर्षों तक रहकर व्याकरण दर्शन और साहित्य में पाण्डित्य प्राप्त करके लौटे। इनके चार संतान थीं- तीन पुत्र, एक पुत्री, ज्येष्ठ डाॅ0 हरिदत्त शास्त्री, द्वितीय शिवदत्त शास्त्री तथा कनिष्ठ श्री विýनाथ थे। इनमें छोटे पुत्र विýनाथ और पुत्री विजया का युवावस्था में ही देहान्त हो गया था।
अन्त में स्वामी द्र्यनानन्द एवं बाबू सीताराम जी के प्रयास से इन्होंने महाविद्यालय मे आना स्वीकार कर लिया। उस समय महाविद्यालय में आकर बैठना बड़े साहस का कार्य था। दूसरे साथियों की हिम्मत न पड़ती थी। प्रारम्भ में इनके साथ आने को कोई साथी सहमत नहीं था। फिर भी ये अकेले ही यहाँ आकर डट गये। शैनः शैनः और लोग भी यहाँ आ गये और काम चल निकला, महाविद्यालय-तरु उखड़ते-उखड़ते पुनः जम गया। वस्तुतः तो महाविद्यालय बनाने का बहुत कुछ श्रेय पण्डित जी को ही है।
पं0 भीमसेन जी शर्मा सन् 1908 से 1925 ई0 तक अविच्छिन्न रूप से महाविद्यालय के साथ मुख्याध्यापक के रूप में सम्बन्धित रहे। यद्यपि बीच में और भी लोग मुख्याध्यापक पद पर रहे, किन्तु फिर भी मुख्याध्यापक पद पर इनका ही बोध होता था। अतः मुख्याध्यापक जी इनका दूसरा नाम हो गया था। कुछ समय तक इन्होंने महाविद्यालय सभा के मंत्री पद पर भी कार्य किया।बीच में कुछ दिन के लिए देवलाली (नासिक) गुरुकुल के आचार्य भी रहें किन्तु उस समय उन्हें महाविद्यालय का ध्यान निरन्तर रहा। कुछ कार्यकर्ताओं के साथ वैमनस्य बढ़ जाने के कारण सन् 1925 ई0 मे इन्होंने महाविद्यालय छोड़कर संन्यास ले लिया।संन्यासाश्रम का इनका नाम ‘स्वामी भास्करानन्द सरस्वती’ था। महाविद्यालय से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर भी इन्होंने कई बार महाविद्यालय की सहायता की। महाविद्यालय की अन्तरंग सभा के सदस्य होने के कारण बारबार इनका आना महाविद्यालय होता रहता था।
आचार्य नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ
गुरुकुल महाविद्यालय की सुदीर्घकाल तक सेवा एवं संवर्धना करने वालों में परमत्यागी एवं तपस्वी आचार्य नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ का नाम सदा स्मरण किया जाता रहेगा। यँू तो कार्य का क्षेत्र एवं उत्तरदायित्व का कोई पद ्येड्ढ नहीं रहा, जिसे उन्होंने न संभाला हो। वे महाविद्यालय सभा के प्रतितिष्ठ सदस्य रहे, अन्तरंग सदस्य रहे, विद्यालय के सदस्य रहे, मन्त्री रहे, उपप्रधान रहे, प्रधान रहे, आचार्य मुख्याध्यापक रहे, मुख्याधिष्ठाता रहे तथा कुलपति आदि पदों को सु्योभित करते रहे। वे कुछ वड्र्ढों तक ‘भारतोदय’ के सम्पादक भी रहे। आरम्भ के 1908 से लेकर 1913 ई0 तक उस कठिन समय में उन्होंने मुख्याधिष्ठाता के दायित्वपूर्ण पद पर रहते हुए अपनी सुव्यवस्था से महाविद्यालय की नींव को सुदृढ़ बनाया। 1907 ई0 में जब महाविद्यालय के संस्थापक स्वामी द्र्यनानन्द जी भी इसे छोड़कर चल दिए थे, दानवीर माननीय बाबू सीताराम जी ने अपनी भूमि तो दी ही, इसे चलाने के अथक परिश्रम करके आचार्य पं0 गंगादत्त जी शास्त्री, पं0 भीमसेन ्यर्मा साहित्याचार्य (आगरावासी), पं0 पद्मसिंह शर्मा एवं पं0 नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ को यहाँ जुटाकर उन्हें इसके संचालन का कार्य सौंपा। बाद में श्री रव्यिंकर ्यर्मा का भी सहयोग प्राप्त हो गया। पं0 गंगादत्त जी ्यास्त्री ने आचार्यत्व का भार संभाला, पं0 भीमसेन ्यर्मा मुख्याध्यापक बने एवं पं0 नरदेव ्यास्त्री को मुख्याधिष्ठाता का कठिन कार्य सौंपा गया, जिसे उन्होंने अपनी कु्यलता, लगन एवं परिश्रम से निभाया।
आचार्य नरदेव शास्त्री का जन्म 21 अक्टूबर, सन् 1880 में श्री श्रीनिवास राव के घर में श्रीमती कृष्णाबाई के गर्भ से हुआ था। पिता हैदराबाद राज्य में उच्च पद पर कार्य करते थे। परिवार प्रतिष्ठित एवं संपन्न था। इनके पिता श्रीनिवासराव सु्ियक्षित एवं विवेक्यील थे, परन्तु अतिक्रोधी थे। माता धार्मिक विचारों की थी, किन्तु अति हठी। ये दोनो ही गुण- क्रोध और हठ श्री नरदेव ्यास्त्री को पैतृक-सम्पत्ति के रूप में प्राप्त हुए थे। ्यास्त्री जी का जन्म का नाम नरसिंहराव था।आचार्य गंगादत्त जी के सम्पर्क में आने पर उन्होंने इनका नाम ‘नरदेव’ कर दिया। बाद में वे इसी ‘नरदेव’ नाम से ही प्रसिद्ध हुए और ‘्यास्त्री’ (पंजाब की) तथा ‘वेदतीर्थ’ (कलकत्ता की) परीक्षाएं उत्तीर्ण कर लेने पर, ये दोनों उनके मूल नाम के साथ जुड़ गयीं और उनका पूरा नाम हो गया ‘नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ’। वैसे सामान्य रूप से लोग उनको शास्त्री जी’ एवं समीप के लोग ‘राव जी- कहकर पुकारते थे।
पं0 पद्मसिंह जी शर्मा
पं0 पद्मसिंह शर्मा जी का जन्म सन् 1876 ई0 दिन रविवार फाल्गुन सुदि 12 संवत् 1933 वि0 को चांदपुर स्याऊ रेलवे स्टे्यन से चार कोस उत्तर की ओर नायक नामक छोटे से गाँव में हुआ। इनके पिता श्री उमरावसिंह जी गाँव के मुखिया, प्रतिष्ठित, परोपकारी एवं प्रभाव्याली पुरूड्ढ थे।पैतृक पे्या जमीदारी और खेती था। पिताजी के समय में खैंची-राव का काम भी होता था। आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी।
इनके पिता आर्यसमाजी विचारधारा के थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती के प्रति उनकी अत्यन्त श्रद्धाा थी। इसी कारण उनकी रूचि व्यिेड्ढ रूप से संस्कृत की ओर हुई। उन्हीं की कृपा से इन्होंने अनेक स्थानों पर रहकर स्वतंत्र रूप से संस्कृत का अध्ययन किया।
जब ये 10-11 वड्र्ढ के थे तो इन्होंने अपने पिताश्री से ही अक्षराभ्यास किया। फिर मकान पर कई पण्डित अध्यापकों ये संस्कृत में सारस्वत, कौमुदी और रघुवं्य आदि का अध्ययन किया।
सन् 1909 ई0 में इनका आगमन ज्वालापुर महाविद्यालय में हुआ। यहाँ इन्होंने ‘भारतोदय’ (महाविद्यालय का मासिक मुख्य पत्र) का सम्पादन एवं साथ ही अध्यापन कार्य किया। सन् 1911 ई0 में इन्होंने महाविद्यालय की प्रबन्ध-समिति के मन्त्री पद पर भी कार्य किया। इस प्रकार महाविद्यालय की अविरत सेवा करते रहे। इनके सम्पादकत्व में ‘भारतोदय’ पत्रिका ने खूब ख्याति प्राप्त की। सन् 1917 में इनके पिताजी का देहान्त हो गया। इस कारण इन्हें महाविद्यालय छोड़कर घर आना पड़ा। इस प्रकार महाविद्यालय के साथ इनका 9 वड्र्ढ तक सम्बन्ध रहा। इनके अथक प्रयासों से महाविद्यालय निरन्तर उन्नति के पथ की और अग्रसर होता रहा।
महाविद्यालय छोड़ने के बाद श्रीयुत शिवप्रसाद जी गुप्त के अनुरोध पर ये सन् 1918 में ‘ज्ञानमण्डल’ में गये।