गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर
स्थापना
आर्य समाज के संस्थापक, महान समाज सुधारक व आधुनिक युग के वेदोद्धारक महर्षि दयानन्द ने अनुभव किया कि ब्रिटिष प्रषासन के आगमन से प्रत्येक क्षेत्र में पाष्चात्य विचारधारा का समावेष सुनियोजित ढंग से किया जा रहा है।और भारतीय संस्कृति को आदिम व अविकसित रूप में प्रचारित करके जनमानस को दिग्भ्रमित किया जा रहा है। अतः महर्षि दयानन्द ने भूले-भटके भारतीयों को पुनः वेदों का ज्ञान कराया तथा प्राचीन गौरव गरिमा से अवगत कराते हुए अज्ञानरूपी अधंकार से निकालकर ज्ञानरूपी प्रकाष की ओर अग्रसर होने का आह्वान किया। वेदो की व्याख्या करते हुए उन्होंने अपने ग्रन्थों सत्यार्थ प्रकाष,व्यवहारभानु, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका व संस्कारविधि आदि ग्रन्थों में प्राचीन भारतीय गुरुकुलीय-षिक्षा-प्रणाली की ओर ध्यान दिलाया। उन्होने कहा कि गुरुकुलीय षिक्षा पद्धति द्वारा आर्यग्रन्थों के पठन-पाठन से भारत पुनः विष्व-सिरमौर हो जाएगा। उनके इस विचार को उनके सुयोग्य व दार्षनिक षिष्यों ने क्रियान्वित किया। जिनमें स्वामी श्रद्धानन्द और उद्भट विद्वान व दार्शनिक स्वामी दर्षनानन्द का नाम अग्रणी है।
गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर की स्थापना तार्किक षिरोमणि व महान दार्षनिक स्वामी दर्षनानन्द सरस्वती ने वैषाख शुक्ल अक्षयतृतीया सम्वत् 1964 विक्रमी (30जून 1907ई0) को दानवीर स्व0 बाबू सीतारामजी, पुलिस इंस्पेक्टर, ज्वालापुर के सुरम्य उद्यान में संस्कृत वांड़्मय एवं भारतीय सस्ंकृति की निःषुल्क षिक्षा हेतु गुरुकुलीय परम्परानुसार की। उस समय स्वामीजी ने तीन छात्र, तीन चवन्नी,तीन बीघा भुमि को लेकर ही गुरुकुल स्थापित किया था। जो आज एक विषाल संस्था का रूप धारण कर चुका है।