गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर
संकल्पना
महान वेदोद्धारक महर्षि दयानन्द की विचारधारा थी कि “पाठषालाओं से एक योजन अर्थात् चार कोष दूर ग्राम वा नगर रहे। सबको तुल्य वस्त्र, खान-पान, आसन दिए जाएं, चाहे वह राजकुमार हो वा राजकुमारी हो चाहे दरिद्र की सन्तान हों। सबको तपस्वी होना चाहिए।” क्योंकि वे विद्या को सब सुखों का मूल मानते थे। उनका कहना था कि “जिससे जितना हो सके उतना प्रयत्न और धन का विद्या कि वृद्धि में व्यय किया करें। जिसे देष में यथायोग्य ब्रह्मचर्य, विद्याा और वेदान्त धर्म का प्रचार होता है, वही देष सौभाग्यवान होता है।”
महर्षि दयानन्द के उक्त कथनो के क्रियान्वयन हेतु महान दार्षनिक स्वामी दर्षानान्द ने गुरुकुल महाविद्यालय की स्थापना की। उनका स्वप्न था कि गुरुकुल की प्राचीन षिक्षा पद्धति को पुनर्जीवित करने से भारतीय आर्य सभ्यता और संस्कृति का पूर्णरक्षण होगा क्योंकि यहाॅ उसका आद्योपातं समावेष होगा। छात्रों का खान-पान, रहन-सहन, वेषभूषा पूर्णतया निराडम्बर, सादगी तथा स्वच्छता युक्त होगा। गुरुकुल के अध्यापकों की दिनचर्या व्यवस्थित होगी जो प्रातः सायं सन्ध्योपासना तथा अग्निहोत्र के कारण धर्म व आस्थावान के साथ-साथ मानवीय मूल्यों से ओतप्रोत रहेगी। स्वालम्बन पर बल दिया जाएगा। षिक्षा का लक्ष्य छात्र में स्वदेष-गौरव, स्वधर्म अभिमान तथा सुयोग्य नागरिकों का निर्माण करना रहेगा जो समाज, देष, सांस्कृतिक मूल्य व धर्म को समुन्नत कर भारत को पुनः विष्वगुरू के पद पर आसीन कर सकें।