गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर
संक्षिप्त परिचय
उत्तर भारत के उत्तराचंल प्रदेष में अवस्थित जनपद हरिद्वार के ज्वालापुर नामक उपनगर से 2 फर्लाग की दूरी पर पुण्यसलिला भागीरथी की नहर के दक्षिणी तट पर रेलवे लाइन से बिल्कुल सटा हुआ, लोहे के पुल के दक्षिण की ओर सुविस्तृत एवं परम रमणीक भूमि में गुरूकुल महाविद्यालय ज्वालापुर स्थित है।
इसकी स्थापना आज से 106 वर्ष पूर्व वैषाख शुक्ला 3(अक्षय तृतीया) सम्वत 1964 वि0(तदनुसार 30 जून सन् 1907 ई0 को दानवीर स्वर्गीय बाबू सीताराम जी, इंसपेक्टर आफ पुलिस ज्वालापुर, के सुरम्य उद्यान में सस्ंकृत -षिक्षा के प्रचार एवं विलुप्त ब्रह्मचर्याश्रम’प्रणाली के पुनरुद्धार के विषेष उद्देष्य को लेकर शास्त्रार्थ-महारथी, उद्भट विद्वान् प्रसिद्धवाग्मी स्वनामधन्य तार्किकषिरोमणि वीतराग श्री 108 स्वामी दर्षनानन्द जी सरस्वती के कर’कमलों द्वारा केवल तीन बीघा भूमि में बारह आने के स्थिर कोष से हुई थी।
आज इस संस्था को जनता जनार्दन की एकनिष्ठा से मूक सेवा करते हुए 106 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इस काल में अपने जीवन की अनेक अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियो का सामना किया है।सब कुछ होने पर भी अपने आदर्षभूत उद्देष्य का आज तक परित्याग नहीं किया।
‘महाविद्यालय ज्वालापुर’ की विषेषता है कि यह प्राचीन ब्रह्मचर्याश्रम प्रणाली के आधार पर आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा निर्दिष्ट पद्धति के अनुसार निर्धन एवं धनवान् छात्रो को सर्वथा समान भाव से वैदिक वाड.्मय की उच्चतम निःषुल्क षिक्षा देता है।
शिक्षा का माध्यम आर्य-भाषा है। इस संस्था में वेद, वेदांग, उपनिषद्, दर्शनषास्त्र, संस्कृत साहित्य, धर्मषास्त्र आदि प्राच्य विषयों के अतिरिक्त हिन्दी, गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान (भूगोल, इतिहास, नागरिक शास्त्र) कम्प्यूटर और अंग्रेजी भाषा की भी यथोचित षिक्षा दी जाती है। यहाँ से षिक्षा प्राप्त करके सहस्राधिक छात्र स्नातक बनकर देष के धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक आदि विभिन्न क्षेत्रों में बड़ी तत्परता और कुषलता के साथ कार्य कर रहे हैं। यह संस्था संस्कृत साहित्य के ज्ञान और उसके ठोस पाण्डित्य में अपना विषेष स्थान और प्रभाव रखती है।
यहाँ का जीवन सरल और रहन-सहन सादा है। स्नातकों तथा छात्रों मे शास्त्रीय विषयों के प्रौढ़ पाण्डित्य के साथ-साथ ग्रन्थ-लेखन, पत्रकारिता, कवित्व-षक्ति, कुषल अध्यापकत्व, व्याख्यान-कला आदि में विशेष प्रगतिषीलता है। इसके पास 300 बीघा भूमि है, जिससे कृषि और वाटिका आदि के द्वारा पर्याप्त सहायता प्राप्त होती है। संस्था में बड़े-बड़े विषाल भवन हैं, जो यहाँ के सौन्दर्य में अपना विशेष स्थान रखते हैं।
यहाँ के कार्यकर्ता एवं आचार्य सदा से त्यागी, तपस्वी, सरस्वती के सच्चे उपासक एवं अनन्य भक्त रहे हैं, जो सांसारिक प्रलोभनों से भी उदासीन हैं। इसी का यह सपरिणाम है कि आज की विषम परिस्थितियों में भी सह संस्था किसी न किसी रूप में दुःख-सुख भोगकर दपना अस्तित्व सुरक्षित रखो हुए है। इसे पूर्णरूपेण न राज्याश्रय प्राप्त है और न ही अपेक्षित रूप से जनता का आश्रय ही प्राप्त हुआ है। केवल भगवान् के भरोसे पर उसी दीनबन्धु के विष्वास और आदर्ष-संन्यासी श्री स्वामी दर्षानानन्द जी सरस्वती के एकमात्र भोगवाद के दृढ़ सिद्धान्त पर इसका संचालन निर्बाध रूप से हो रहा है।
सभा
पं0 भीमसेन, आचार्य पं0 रविषंकर, स्वामी सर्वदानन्द, महन्त षिवदयालुगिरि, बाबू प्रताप सिंह, चै0 महाराज सिंह तथा पं0 तुलसीरामजी बापू इत्यादि महानुभवों ने एक सभा का निर्माण किया। जिसका प्रथम अधिवेषन 18 अप्रैल 1908 ई0 कों बाबू सीताराम जी के मकान पर हुआ। इस सभा ने एक कमेटी का निर्माण किया जिसका नाम ’महाविद्यालय सभा’ रखा गया। इसमें चै0 महाराज सिंह(मानकपुर)-प्रधान, महन्त षिवदयालुगिरि तथा चै0 अमीर सिंह - उप-प्रधान, पं0 तुलसीराम बापू-मन्त्री, श्री दुर्गादत्त कोषाध्यक्ष पदों पर चुने गए।
महाविद्यालय सभा
पं0 भीमसेन जी ने सभा के नियम और उद्देष्य निर्धारित करके उक्त सभा में रखे, जो सर्वसममति से पास करके रजिस्ट्री हेतु प्रषासन में भेजे गए। 8 जून 1908 ई0 को सभा पंजीकृत हुई। जो महाविद्यालय सभा कहलाई। पहले इसका संविधान हिन्दी भाषा में निर्मित था। अनन्तर 1 जून 1949 ई0 को महासभा के अधिवेषन में संविधान को पुनः अंग्रेजी भाषा में स्वीकृत किया गया और पंजीकृत कराया गया। आज का महाविद्यालय सभा का संषोधित संविधान रजिस्ट्रेषन एक्ट 1860 के निर्देषों का अनुपालन करता है।